:दोहा:
वंदो पांचो परम - गुरु , चौबिसों जिनराज ।
करूँ शुद्ध आलोचना , शुद्धि करन के काज ।।१।
:सखी छन्द :
सुनिए जिन अरज हमारी , हम दोष किये अति भारी ।
तिनकी अब निवृति काजा, तुम शरण लही जिनराजा ।।२।।
इक बे ते चउ इंद्री वा, मनरहित सहित जे जीवा ।
तिनकी नहि करुणा धारी , निरदई हो घात विचारी ।।३।।
समरम्भ समारंभ आरम्भ , मन वच तन कीने प्रारम्भ ।
कृत कारित मोदन करिके, क्रोधादि चतुष्टय धरिके ।।४।।
शत आठ जु इमि भेदनतै , अघ कीने परिछेदन तै ।
तिनकी कंहु कोलो कहानी , तुम जानत केवलज्ञानी ।।५।।
विपरीत एकान्त विनय के , संशय अज्ञान कुनय के ।
वश होय घोर अघ कीने , वचतै नहि जाय कहीने ।।६।।
कुगुरूनकी सेवा किनी, केवल अदया करि भीनी ।
या विधि मिथ्यात भ्रमायो , चहुँ गति मधि दोष उपायों ।।७।।
हिंसा पुनि झूठ जु चोरी , पर वनिता सो द्रग जोरी ।
आरम्भ परिग्रह भीनो , पन पाप जु या विधि कीनो ।।८।।
सपरस रसना घ्रानन को ,द्रग कान विषय सेवन को ।
बहु करम किये मनमाने ,कछु न्याय अन्याय न जाने ।।९।।
फल पञ्च उदम्बर खाये ,मधु मांस मद्य चित चाये ।
नहि अष्ट मूलगुण धारे , सेये कुविसन दुखकारे ।।१०।।
दुइबीस अभख जिन गाये , सो भी निशदिन भुंजाये ।
कछु भेदाभेद न पायो , ज्यो त्यों करि उदर भरायो ।।११।।
अनन्तानुबन्धी सो जानो , प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यनो ।
संज्वलन चौकड़ी गुनिये ,सब भेद जु षोडश गुनिये ।।१२।।
परिहास अरति रति शोक ,भय ग्लानि त्रिवेद संयोग ।
पनबीस जू भेद भये इम , इनके वश पाप किये हम ।।१३।।
निद्रावश शयन कराई , सुपने मधि दोष लगाई ।
फिर जागी विषय वन धायो ,नाना विध विष फल खायो ।।१४।।
आहार विहार निहारा , इनमे नहि जतन विचारा ।
बिन देखि धरी उठाई , बिन शोधी वस्तु जु खाई ।।१५।।
तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकल्प उपजायो ।
कछु सुधि बुधि नाहि रही है,मिथ्यामति छाय गई हैं ।।१६।।
मरजादा तुम ढिग लीनी , ताहू में दोष जु कीनी ।
भिन भिन अब कैसे कहिये,तुम ज्ञान विषै सब पइये ।।१७।।
हा हा ! मैं दुठ अपराधी , त्रस जीवन राशि विराधी ।
थावर की जतन न कीनी ,उर में करुणा नहि लीनी ।।१८।।
प्रथिवी बहु खोद कराई, महलादिक जागाँ चिनाई ।
पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखातैं पवन बिलोल्यो ।।१९।।
हा हा ! मैं अदयाचारी, भू हरित काय जु विदारी ।
तामधि जीवन के खंदा, हम खाए धरी आनंदा ।।२०।।
हा हा ! परमाद बसाई, बिन देखे अगनि जलाई ।
तामध्य जीव जे आये ,ते हू परलोक सिधाये ।।२१।।
बीध्यो अन राति पिसायो, ईंधन बिन सोधि जलायो ।
झाड़ू ले जागाँ बुहारी, चींटी आदिक जीव बिदारी ।।२२।।
जल छानि जिवानी कीनी, सो हू पुनि डारि जु दीनी ।
नहिं जल थानक पहुँचाई ,किरिया बिन पाप उपाई ।।२३।।
जल मल मोरिन गिरवायो, क्रमि कुल बहु घात करायो ।
नदियन बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये ।।२४।।
अन्नादिक शोध कराई , तातें जु जीव निसराई ।
तिनका नहिं जतन कराया ,गलियारे धूप डराया ।।२५।।
पुनि द्रव्य कमावन काजै, बहु आरम्भ हिंसा साजै ।
किये तिसनावश अघ भारी,करुणा नहिं रंच विचारी ।।२६।।
इत्यादिक पाप अनन्ता ,हम कीने श्री भगवंता ।
संतति चिरकाल उपाई , वाणी तै कहिय न जाई ।।२७।।
ताको जु उदय अब आयो, नाना विध मोहि सतायो ।
फल भुंजत जिय दुःख पावै, वचतै कैसे करि गावै ।।२८।।
तुम जानत केवलज्ञानी, दुःख दूर करो शिवथानी ।
हम तो तुम शरण लहि है ,जिन तारन विरद सही हैं ।।२९।।
इक गाँवपति जो होवे , सो भी दुखिया दुःख खोवै ।
तुम तीन भुवन के स्वामी ,दुःख मेटहु अंतरजामी ।।३०।।
द्रोपदी को चीर बढायो ,सीता प्रति कमल रचायो ।
अंजन से किये अकामी , दुःख मेटो अंतरजामी ।।३१।।
मेरे अवगुन न चितारो , प्रभु अपनों विरद सम्हारो ।
सब दोष रहित करि स्वामी , दुःख मेटहु अंतरजामी ।।३२।।
इन्द्रादिक पद नहिं चाहूँ, विषयनि में नाहिं लुभाऊँ ।
रागादिक दोष हरिजे , परमातम निज पद दीजे ।।३३।।
:दोहा:
दोष रहित जिनदेव जी , निज पद दीज्यो मोय ।
सब जीवन के सुख बढ़े , आनन्द मंगल होय ।।
अनुभव माणिक पारखी , जौहरी आप जिनन्द ।
येही वर मोहि दीजिये , चरण शरण आनन्द ।।
प्रस्तुति :सागर कुमार जैन 'सागर'