Thursday, 26 September 2013

।। आलोचना पाठ ।।

                     :दोहा:
वंदो पांचो परम - गुरु , चौबिसों जिनराज ।
करूँ शुद्ध आलोचना , शुद्धि करन के काज ।।१।
                    :सखी छन्द :
सुनिए जिन अरज हमारी , हम दोष किये अति भारी ।
तिनकी अब निवृति काजा, तुम शरण लही जिनराजा ।।२।।
इक बे ते चउ इंद्री वा, मनरहित    सहित   जे जीवा   ।
तिनकी नहि करुणा धारी , निरदई हो घात विचारी ।।३।।
समरम्भ समारंभ आरम्भ , मन वच तन कीने प्रारम्भ ।
कृत कारित मोदन करिके, क्रोधादि चतुष्टय धरिके  ।।४।।
शत आठ जु इमि भेदनतै , अघ कीने परिछेदन तै   ।
तिनकी कंहु कोलो कहानी , तुम जानत केवलज्ञानी ।।५।।
विपरीत एकान्त विनय के , संशय अज्ञान कुनय के ।
वश होय घोर अघ कीने ,  वचतै नहि जाय   कहीने ।।६।।
कुगुरूनकी सेवा किनी,  केवल अदया करि भीनी   ।
या विधि मिथ्यात भ्रमायो , चहुँ गति मधि दोष उपायों ।।७।।
हिंसा पुनि झूठ जु चोरी , पर वनिता सो द्रग जोरी  ।
आरम्भ परिग्रह भीनो , पन पाप जु या विधि कीनो ।।८।।
सपरस रसना घ्रानन को ,द्रग कान विषय सेवन को ।
बहु करम किये मनमाने ,कछु न्याय अन्याय न जाने ।।९।।
फल पञ्च उदम्बर खाये ,मधु मांस मद्य चित चाये ।
नहि अष्ट मूलगुण धारे , सेये कुविसन दुखकारे ।।१०।।
दुइबीस अभख जिन गाये , सो भी निशदिन भुंजाये ।
कछु भेदाभेद न पायो , ज्यो त्यों करि उदर भरायो ।।११।।
अनन्तानुबन्धी सो जानो , प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यनो ।
संज्वलन चौकड़ी गुनिये ,सब भेद जु षोडश गुनिये ।।१२।।
परिहास अरति रति शोक ,भय ग्लानि त्रिवेद संयोग ।
पनबीस जू भेद भये इम , इनके वश पाप किये हम ।।१३।।
निद्रावश शयन कराई , सुपने मधि    दोष     लगाई    ।
फिर जागी विषय वन धायो ,नाना विध विष फल खायो ।।१४।।
आहार विहार निहारा , इनमे नहि जतन विचारा ।
बिन देखि धरी उठाई , बिन शोधी वस्तु जु खाई ।।१५।।
तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकल्प उपजायो ।
कछु सुधि बुधि नाहि रही है,मिथ्यामति छाय गई हैं ।।१६।।
मरजादा तुम ढिग लीनी , ताहू   में दोष जु      कीनी ।
भिन भिन अब कैसे कहिये,तुम ज्ञान विषै सब पइये ।।१७।।
हा हा ! मैं दुठ अपराधी , त्रस जीवन राशि विराधी ।
थावर की जतन न कीनी ,उर में करुणा नहि लीनी ।।१८।।
प्रथिवी बहु खोद कराई, महलादिक जागाँ चिनाई ।
पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखातैं पवन बिलोल्यो ।।१९।।
हा हा ! मैं अदयाचारी, भू हरित काय जु विदारी ।
तामधि जीवन के खंदा, हम खाए धरी आनंदा ।।२०।।
हा हा ! परमाद बसाई, बिन देखे अगनि जलाई ।
तामध्य जीव जे आये ,ते हू परलोक सिधाये ।।२१।।
बीध्यो अन राति पिसायो, ईंधन बिन सोधि जलायो ।
झाड़ू ले जागाँ बुहारी,  चींटी आदिक जीव बिदारी ।।२२।।
जल छानि जिवानी कीनी, सो हू पुनि डारि जु दीनी ।
नहिं जल थानक पहुँचाई ,किरिया बिन पाप उपाई ।।२३।।
जल मल मोरिन गिरवायो, क्रमि कुल बहु घात करायो ।
नदियन बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव   मराये ।।२४।।
अन्नादिक शोध कराई , तातें जु जीव निसराई  ।
तिनका नहिं जतन कराया ,गलियारे धूप डराया ।।२५।।
पुनि द्रव्य कमावन काजै, बहु आरम्भ हिंसा साजै ।
किये तिसनावश अघ भारी,करुणा नहिं रंच विचारी ।।२६।।
इत्यादिक पाप अनन्ता ,हम कीने श्री भगवंता ।
संतति चिरकाल उपाई , वाणी तै कहिय न जाई ।।२७।।
ताको जु उदय अब आयो, नाना विध मोहि सतायो ।
फल भुंजत जिय दुःख पावै, वचतै कैसे करि गावै ।।२८।।
तुम जानत केवलज्ञानी, दुःख दूर करो शिवथानी ।
हम तो तुम शरण लहि है ,जिन तारन विरद सही हैं ।।२९।।
इक गाँवपति जो होवे , सो भी दुखिया दुःख खोवै ।
तुम तीन भुवन के स्वामी ,दुःख मेटहु अंतरजामी ।।३०।।
द्रोपदी को चीर बढायो ,सीता प्रति कमल रचायो ।
अंजन से किये अकामी , दुःख मेटो अंतरजामी ।।३१।।
मेरे अवगुन न चितारो , प्रभु अपनों      विरद सम्हारो ।
सब दोष रहित करि स्वामी , दुःख मेटहु अंतरजामी ।।३२।।
इन्द्रादिक पद नहिं चाहूँ, विषयनि में नाहिं लुभाऊँ  ।
रागादिक दोष हरिजे ,  परमातम निज पद दीजे  ।।३३।।
                           :दोहा:
दोष रहित जिनदेव जी , निज पद दीज्यो मोय ।
सब जीवन के सुख बढ़े , आनन्द मंगल होय ।।
अनुभव माणिक पारखी , जौहरी आप जिनन्द ।
येही वर मोहि दीजिये , चरण शरण आनन्द  ।।

                प्रस्तुति :सागर कुमार जैन 'सागर'

।। बारह भावना (राजा राणा छत्रपति )।

** रचयिता : श्रीमान पंडित कविवर भूधरदास जी कृत ।
                                   :दोहा :
राजा  राणा   छत्रपति ,  हाथिन   के   असवार ।
मरना सबको एक दिन , अपनी - अपनी बार ।। १।।
दल बल देवी देवता , मात    पिता      परिवार ।
मरती बिरियां जीव को , कोई न राखन हार ।।२।।
दाम बिना निर्धन दुखी , तृष्णा   वश  धनवान ।
कंहू न सुख संसार में , सब जग देख्यो छान ।।३।।
आप  अकेला  अवतरे ,   मरे   अकेलो    होय ।
यूँ कबहूँ इस जीव को , साथी सगा न कोय ।।४।।
जहां देह अपनी नहीं , तहां   न अपना  कोय ।
घर सम्पति पर प्रगट ये , पर है परिजन लोय ।।५।।
दीपै चाम - चादर  मढ़ी , हाड      पींजरा देह ।
भीतर या सम जगत में ,अवर नहीं घिन गेह ।।६।।
                             :सोरठा :
मोह   नींद  के  जोर ,  जगवासी   घुमै    सदा ।
कर्म चोर चंहु ओर ,    सरवस लूटे सुध नहीं ।।७।।
सतगुरु देय जगाय ,मोह नींद    जब उपशमै ।
तब कछु बनै उपाय , कर्म चोर आवत रुकै ।।८।।
                              :दोहा :
ज्ञान दीप तप तेल भर ,  घर      शोधै भ्रम   छोर ।
या विध बिन निकसे नहीं , पैठे पूरब     चोर ।।९।।
पञ्च महाव्रत संचरण , समिति पञ्च       प्रकार ।
प्रबल पञ्च इन्द्रिय विजय , धार निर्जरा सार ।।१०।।
चौदह राजू उतंग नभ ,  लोक   पुरुष   संठान ।
तामे जीव अनादिते , भरमत हैं बिन ज्ञान  ।।११।।
धन कन कंचन राज सुख , सबहि सुलभ कर जान ।
दुर्लभ   है संसार    में , एक    जथारथ ज्ञान ।।१२।।
जाचे सुर तरु देय सुख , चिन्तत चिन्ता रैन ।
बिन जाचेँ बिन चिंतये ,  धर्म सकल सुख दैन ।।१३।।

                        प्रस्तुति :-सागर कुमार 'सागर'

।। दर्शन - स्तुति ( श्रीमान पण्डित भूधर दास कृत )।।

अहो ।  जगत   गुरुदेव , सुनियो      अरज     हमारी ।
तुम   हो      दीनदयाल ,    मैं   दुखिया    संसारी ।।१।।
इस भव    वन के   माँहि , काल    अनादि     गमायो ।
भ्रमत चहू गति माहि , सुख नहि   दुःख बहु पायो ।।२।।
कर्म     महारिपु     जोर , एक न    कान    करे      जी ।
मन  मान्या    दुःख देहि , काहू सो    नाहि डरे जी ।। ३।।
कबहुँ    इतर   निगोद ,  कबहुँ       नर्क       दिखावें  ।
सुर - नर पशुगति  मांहि ,    बहुविधि नाच  नचावे ।।४।।
प्रभु ! इनके परसंग ,    भव -भव      मांहि    बुरे  जी ।
जे    दुःख   देखे   देव !  तुमसो      नांही    दुरे  जी ।।५।।
एक जनम की बात ,कहि न   सको   सुनि    स्वामी  ।
तुम     अनन्त     परजाय ,    जानत     अन्तरयामी ।।६।।
मैं  तो    एक   अनाथ ,  ये      मिलि     दुष्ट    घनेरे  ।
कियो   बहुत   बेहाल ,     सुनियो    साहिब      मेरे ।।७।।
ज्ञान  महानिधि   लूटि ,  रंक   निबल  करि   डारयो ।
इन ही तुम मुझ मांहि ,   हे जिन !   अन्तर      पायों ।। ८।।
पाप   पुण्य   मिल   दोइ ,     पायनि     बेडी    ड़ारी ।
तन    कारागृह      मांहि ,   मोहि दिये दुःख   भारी ।।९।।
इनको     नेक    विगार ,    मैं कुछ नाहि कियो जी   ।
बिन    कारन   जगवंद्य !  बहुविधि बैर लियो जी ।। १० ।।
अब  आयो  तुम  पास , सुनि  कर  सुजस   तिहारो  ।
नीति  निपुण  महाराज ,  कीजे   न्याय     हमारो ।। ११।।
दुष्टन     देहु      निकार,  साधुन    को      रख  लीजै  ।
विनवै  "भूधर दास "       हे प्रभु !  ढील न  कीजै ।। १२ ।।

                                प्रस्तुति :- सागर कुमार ' सागर '