Tuesday, 1 October 2013

।। वैराग्य भावना - (वज्रनाभि चक्रवर्ती ) की ।।

                                     :दोहा:
        बीज राख फल भोगवै , ज्यों किसान जग माहिं ।
        त्यों चक्री नृप सुख करे , धर्म विसारै     नाहिं ।।१।।

                         :जोगीरासा वा नरेन्द्र छन्द :
इहविधि राज करै नरनायक, भोगै पुण्य विशालो ।
सुखसागर में रमत निरन्तर, जात न जान्यो कालो ।।
एक दिवस शुभ कर्म संजोगे, क्षेमंकर मुनि वन्दे  ।
देख शिरीगुरु के पदपंकज,लोचन अलि  आनन्दे ।।२।।
तीन प्रदक्षिण दे शिर नायो, कर पूजा थुति कीनी ।
साधु समीप विनय कर बैठ्यो, चरनन में दिठि दीनी ।।
गुरु उपदेश्यो धर्म शिरोमणि ,सुन राजा वैरागे ।
राजरमा वनितादिक जे रस, ते रस बेरस लागे ।।३।।
मुनि सूरज कथनी किरणावलि, लगत भरम बुधि भागी ।
भव तन भोग स्वरूप विचारयो, परम धरम अनुरागी ।।
इह संसार महावन भीतर, भरमत ओर न आवै ।
जामन मरन जरा दव दाहै , जीव महादुख पावै ।।४।।
कबहूँ जाय नरक थिति भुञ्जै,छेदन भेदन भारी ।
कबहूँ पशु परजाय धरै तहँ, बध बंधन भयकारी ।।
सुरगति में परसंपति देखे , राग उदय दुःख होई ।
मानुषयोनि अनेक विपतिमय , सर्वसुखी नहीं कोई ।।५।।
कोई इष्ट वियोगी विलखै,कोई अनिष्ट संयोगी ।
कोई दीन दरिद्री विलखे , कोई तन के रोगी ।।
किसही घर कलिहारी नारी , कै बैरी सम भाई ।
किसही के दुःख बाहिर दीखै , किसही उर दुचिताई ।।६।।
कोई पुत्र बिना नित झूरै , होय मरै तब रोवै  ।
खोटी सन्तति सों दुःख उपजै , क्यों प्राणी सुख सोवै ।।
पुण्य उदय जिनके तिनके भी नाहिं सदा सुख साता ।
यह जगवास जथारथ देखे ,सब दिखै दुःखदाता ।।७।।